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इनकार मोहब्बत का करेगा तू कहाँ तक / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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इनकार मोहब्बत का करेगा तू कहाँ तक
आएगा कभी नाम मेरा तेरी जुबाँ तक
सीने में सुलगती रही इक आग अजब-सी
उठता हुआ देखा न कभी मैंने धुवाँ तक
मिल जुल के चलो प्यार का संसार बसाएँ
तनहा न बना पाएँगे हम एक मकाँ तक
ये राह मोहब्बत की, मोहब्बत का सफ़र है
इस राह पे ले चल तू मुझे चाहे जहाँ तक
शातिर हो बड़े प्यार की शतरंज में तुम भी
देखेंगे न खाओगे भला मात कहाँ तक
निकली है सदा मेरे तड़पते हुए दिल से
पहुँचेगी जमाने में हर इक पीरो-जवाँ तक
कहते हो 'रक़ीब' अपना हबीब आज मुझे तुम
ये बात तो अच्छी है मगर सिर्फ़ बयाँ तक