इनकार / रंजना मिश्र
नवीं कक्षा में थी वह 
जब इतिहास की किताब बग़ल में रखकर उसने पहली रोटी बेली 
टेढ़े-मेढ़े उजले अँधेरे शब्दों के भीतर 
उतरने की पुरज़ोर कोशिश करते 
उसने पृथ्वी की तरह गोल रोटी बेली 
उसके हिस्से का इतिहास आधा कच्चा आधा पक्का था 
तवे पर रखी रोटी की तरह 
रोटी बेलते-बेलते वह 
कॉलेज और यूनिवर्सिटी तक हो आई 
सौम्य सुसंस्कृत होकर 
उसने सुंदर रोटियाँ बेलीं 
और सोचा रोटियों के सुंदर मीठी और नरम होने से उसका इतिहास और भविष्य बदल जाएँगे 
उसके मर्द के दिल का रास्ता आख़िर पेट से होकर जाता था 
उन्होने उसकी पीठ थपथपाई और कहा दूधो नहाओ पूतो फलो 
क्योंकि वह लगातार सुंदर रोटियाँ बेलने लगी थी 
सपने देखते, चिड़ियों की बोली सुनते, बच्चे को दूध पिलाते 
वह बेलती रही रोटियाँ 
उसके भीतर कई फफोले उग आए 
गर्म फूली हुई रोटी की भाप से 
दुनिया के नक़्शे पर उभर आए नए द्वीपों की तरह 
चूल्हे की आँच की बग़ल से उठकर 
चार बर्नर वाले गैस चूल्हे के सामने खड़े होकर उसने फिर से रोटियाँ बेलीं 
हालाँकि उसने कला, साहित्य, इतिहास, दर्शन और विज्ञान सब पढ़ डाले थे 
भागती-भागती खेल के मैदानों तक हो आई थी 
और टी.वी. पर बहस करती भी दिख जाती थी 
पर घर लौटकर उसने ख़ुद को चूल्हे के सामने पाया 
और बेलने लगी नर्म फूली रोटियाँ 
कैसी अजीब बात 
गोल रोटी-सी गोल दुनिया के किसी कोने में ऐसी कोई रसोई न थी 
जहाँ खड़ी होकर वह रोटी बेलने से इनकार कर देती! 
 
	
	

