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इनको आदत है जीने की / प्रदीप शुक्ल
Kavita Kosh से
बूँदें मत गिनो पसीने की
इनको आदत है जीने की
हर गली सड़क पर
घूम रहे
शारदा, शिवा, जुम्मन काका
इन नामों का योगदान
इस महानगर ने कब आँका
हर महानगर की फितरत है
बस खून पसीना पीने की
कुछ प्लास्टिक के
थाली गिलास
है एल्यूमिनियम की बटली
हर सुबह दाल इच्छाओं की
इस बटली में फिर फिर उबली
दस छेदों वाली चादर भी
गर्मी देती पशमीने की
इस महानगर के
हाँथ पाँव
सोये रहते फुटपाथों पर
लेकिन नींदें खिलवाड़ करें
ए सी में सोये माथों पर
टूटे सपनों को जोड़ जाड़
इनको आदत है सीने की
बूँदें मत गिनो पसीने की
इनको आदत है जीने की।