इन्कलाब के मायने तक भूल गये लोग / महेश सन्तोषी
किधर गयीं वे बस्तियाँ, वे शहर, वे लोग?
अब तो इन्कलाब के माइने तक भूल गये लोग?
ये ठण्डे अलावों की भीड़, ये बुझी-बुझी ज़िन्दगियाँ,
कितने फासले बढ़ गये हैं आग और इन्कलाब के दरमियाँ।
गर्म हवाएँ आईं तो थीं पर लौट गयीं, यहाँ से सर्द होकर
न उड़ाने को कोई धुआं मिला, न मिली कहीं चिनगारियाँ।
एक सी नहीं होती रूह मोमबत्तियाँ की, और मशालों की रूह
वक्त के पास हर आग के आइने हैं, भूल गये लोग
इन्कलाब के मायने...
बन्द माचिसों में बुझी तीलियों का मर्म ढूंढ रहे हैं हम
बुजदिलों के पास दिल तो हैं, दम ढूंढ़ रहे हैं हम।
राख के ढेरों में क्यों नहीं प्रवाहित होती ऊर्जा
प्रवाह की मर्यादा, प्रवाह का धर्म ढूंढ़ रहे हैं हम।
इतिहास की लपटें, कहाँ बुझ गयीं बर्फ की शिलाओं में दब के
चुप क्यांे हैं व्यवस्थाओं से बार-बार छले गये लोग?
इन्कलाब के मायने...
कल तक अवाम ही लाता था क्रान्तियाँ अवाम के वास्ते
जिन्दगियाँ झुलस जाती थीं, तब बदलते थे इतिहास के रास्ते।
भूख जब-जब शहीद होती है, गलियों, सड़कों, चौराहों पर
खून की सुर्खियों में उभर आती थीं, इन्कलाब की इबारतें
कायरों की आरती, नहीं उतारतीं आने वाली पीढ़ियाँ
शहीदों के नाम पर ही जुड़ते हैं मेले, युगों तक रोज-रोज।
इन्कलाब के मायने...