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इन्तज़ार / श्रीप्रकाश शुक्ल

एक दृश्य देखता हूँ
दूसरा उछलने लगता है

एक आंसू पोछता हूँ
अनेक टपकने लगते हैं

एक क्रिया से जुड़ता हूँ
अनेक प्रतिक्रिया कुलबुलाने लगती है

दूर बहुत दूर कोई माँ रो रही है
अर्थ तो बचा नहीं
भाषा भी खो रही है

जीवन महज़ एक घटना बन गया है
अनेक के इस्तक़बाल में !

हाय ! कैसे कहूँ कि हर क्षण एक बीतता हुआ क्षण है
और जो बीत रहा है
वह किसी अनबीते का महज़ इन्तज़ार लगता है
जिसमें सीझती हुई करुणा
गुज़रते समय की उदासी बन
कण्ठ में अटक सी गई है!