इन्तिहा-ए-ज़ुल्म ये है, इन्तिहा कोई नहीं!
घुट गई है हर सदा या बोलता कोई नहीं?
बाद-ए- मुद्दत आइना देखा तो उसमें मैं न था,
जो दिखा, बोला वो मुझसे मैं तेरा कोई नहीं।
हर कोई अच्छे दिनों के ख़ाब में डूबा तो है,
पर बुरे दिन के मुक़ाबिल ख़ुद खड़ा कोई नहीं।
हम अगर चुप हैं तो हम भी बुज़दिलों में हैं शुमार,
हम अगर बोलें तो हम सा बेहया कोई नहीं।
बरगला रक्खा है हमने खुद को उस सच्चाई से,
अस्ल में दुनिया का जिससे वास्ता कोई नहीं
अपनी बाबत क्या है उनकी राय, फरमाते हैं जो,
राहजन चारों तरफ हैं रहनुमा कोई नहीं।