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इन्द्रधनु-सी तुम सजो / अमरेन्द्र
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इन्द्रधनु-सी तुम सजो
तीर रतिपति मैं बनूँ !
भाव कितने मनचले हैं
ठाँव पर इक आ मिले हैं
ओलती की बूँद-से ये
बुलबुलाते बुलबुले हैं
शोर कब तक मैं सुनूँ ?
चाहता, रसमय बनूँ मैं
चेतना अक्षय बनूँ मैं
गीत, जो चलकर है आया
राग उनके, लय बनूँ मैं
आज जीवन सामने है
कल क्या होगा, क्यों गुनूँ।
तुम सजो, मैं भी सजूँगा
बाँसुरी बन कर बजूँगा
आग हो सुर में भले ही
मैं उसी सुर को भजूँगा
बिखरे सुर-लय को चुनूँ !