भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इन्द्रासन की तुरुप-चाल है / राजेन्द्र गौतम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कल बस्ती थी
आज ताल है ।

बूढ़ी माँ
टूटी खटिया को
मुश्किल छत तक ठेला
लोटा-थाली
आटा-दालें
संग गया ले रेला
जल है यह
या एक जाल है ।

सोना तो
मेरी गोदी थी
रूपा कौन सॅंभाले
धनिया को भी
लील गए थे
आसपास के नाले
बाढ़ नहीं यह
महाकाल है ।

बेघर तो
पहले से ही थे
अब छूटा फुटपाथ
पा लेंगे क्या
सभी निवाले
जितने पसरे हाथ
डालों पर भी
कहाँ छाल है ?

कौन उठाएगा
छिगुनी पर
अब के यह गोवधर्न
इनका तो ख़ुद ही संकट में
रहता है सिंहासन
इन्द्रासन की
तुरुप-चाल है ।