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इन्साँ के दिल से क्यूँ भला इन्सान मर गया / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'
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इन्सां के दिल से क्यूँ भला इन्सान मर गया
दर्यादिलों के कौन ये दिल तंग कर कर गया
कैसे गवारा हो उन्हें फ़िरकों में दोस्ती
बलवा तो लूटमार को आसान कर गया
क्यूँ अब लकीरें पीटते हैं बावले-से हम
वो तो लकीर खींच कर जाने किधर गया
कल रात मैनें ख्वाब में इक साँप छू लिया
आँखें खुली तो रेशमी धागे से डर गया
दिल में चुभेगा आइना खंज़र-सा, तीर-सा
गर इस में अक्स हू-ब-हू तेरा उतर गया
कुछ तो अब हाथ-पाँव को हिलना सिखाइए
फ़िर क्या बचेगा पानी जो सर से गुज़र गया
हर आदमी पे आज भी करते हैं हम "यक़ीन"
बस हम न सुधरे, सारा ज़माना सुधर गया