इन्साँ से जिन्हें प्यार न भगवन का कोई डर
वो ख़ुद को बताते हैं पयम्बर कभी रहबर
धीरज की तो सीमा है कोई देख सितमगर
कब तक ये सुनेंगे कि अभी धीर ज़रा धर
सहरा की तरह तपने लगे फ़ूलों के दिल भी
बुलबुल भी चहकते नहीं अब शाखे-शज़र पर
ये शहर दुनाली पे टँका है तो टँका है
मर जाएँ तो मर जाएँ रहेंगे तो यहीं पर
किस हुस्ने-फ़रोज़ाँ पे किया नाज़ भी तुम ने
जो साथ छुडा लेता है दो दिन में अधिकतर
जा अब है तू परवाज़ को आज़ाद परिन्दे
जा अब कि तेरे नोच लिए उस ने सभी पर
आतंक की चादर में छुपेंगे न सितम और
इक रोज़ पुकारेंगे 'यक़ीन' इस से उबर कर