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इन्सानियत की रूह / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
न तो हमदर्द है कोई
न कोई हमसफर अपना
किनारे पर बँधी है नाव
औ’ मझधार में मैं हूँ
था इससे तो कहीं बेहतर
मेरे मौला ! वही दोज़ख
कहाँ भेजा मुझे या रब!
यह किस संसार में मैं हूँ
हैं कहने को तो अरबों लोग
लेकिन आदमी गायब
है खुद का हर बसर आशिक
बस पिन्हाँ ‘यार’ में मैं हूँ
प्रतीक्षा है किसी की उँगलियों
की नर्म पोरों की
दिलों से जो मोहब्बत का
जुड़ा उस तार में मैं हूँ
जमीं पर आसमाँ पर, चाँद-
सूरज पर, सितारों पर
बसी जो जर्रे-जर्रे ओम्-
की झंकार में मैं हूँ
हूँ शायर, खुद को मैं-
इंसानियत की रूह कहता हूँ
जमीं जन्नत बना दें जो
उन्ही दो-चार में मैं हूँ