भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इन्सानों के बीच में भेड़िये का वंशज / हेमन्त कुकरेती

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अभी तुम छोटे हो
फेफड़ों में दम है और लचक है जीभ में
बाद में बस थोड़े समय बाद हर खटके पर गुर्राने वाले तुम
रातभर अन्धकार डूबी अपनी ही छाया से सहमकर चिल्लाओगे
थककर हाँफने से पहले ढूँढ़ लेंगी तुम्हारी आँखें कोई निरापद कोना

अपने भेड़िये पूर्वजों के उलट, जिनके जबड़े हँसते हैं क्रूरता से
तुम भूल गये हो ठीक से रोना तक
जाने क्या चीज़ कम है तुम्हारे जीवन में जिसकी ढूँढ़ में
आकाश की ओर मुँह करके पुकारते हो सर्द आवाज़ में
कौन जान सकता है तुम्हारी पशुवत् विवशता
हम केवल फटकारना जानते हैं
अपने ही रोने से डरे हुए हमें धमकाया है इस खौफ़नाक समय ने

डर से ज़्यादा कुरूप क्या होगा?
हिलते हुए पर्दे! पत्तों का खड़कना!! अपने इन छोटे डरों को भूलकर
हमारे डरों को बाँटते हो और हम छोटे हो जाते हैं

हमारे बीच रहते हुए भी ठण्डा नहीं पड़ा तुम्हारा लहू
एक-दूसरे का ख़ून चूसकर
हम अपने भीतर के जानवर को पालते हैं
तुम्हें देने के लिए महँगा हो गया है मांस
भरमाने के लिए तुम्हें, हमारे पास प्लास्टिक की हड्डियाँ हैं
हमें पता है कि
उनकी रगड़ से निकले अपने ही ख़ून से शान्त हो जाओगे तुम
नहीं तो हण्टर है ही हमारे पास

तुम्हें हमने सिखा दिया है कि साथ रहोगे हमारे तो
अपने स्वजनों को काटोगे या उन्हें जो हमारे नहीं हैं

दुलार से भरकर खु़द उठाकर लाते हो रस्सी
शायद जान गये होगे तुम कि
बँधने का शौक इन्सानों में पाया जाता है
बन्धु! केवल काया का अन्तर है
एक अदृश्य पूँछ की हरकत उनमें भी महसूस की जा सकती है
टुकड़ा फेंकने की देर है बस
मनुष्यों में भी होती है श्वान योनि
फिर भी ईमान के हिसाब से बेहतर होती है तुम्हारी नस्ल

जो तुम्हें खिलाते हैं वे भी कहीं से माँगते हैं
मिलता नहीं है माँगने पर तो छीन लेते हैं
सिर्फ़ जंजीर का फ़र्क है
उनके साथ में होती है तो वे काबू करते हैं
तुम कमाते हो, छुपाते नहीं हो अपनी ख़ुशी

मनुष्य के खोने और छोड़ने की गन्ध सूँघ लेते हो तुम
लाड़ में आकर गुस्सा करते हो झूठमूठ का
बाहर खिंच पड़ती जीभ से पहचानो कि वफ़ा के कीटाणुओं से है
तुम्हारी लार का सम्बन्ध
इस भक्ति का तुम्हें मिलता क्या है
भुलाने पड़ते हैं समय के साथ तमाम शोक
माहिर होना पड़ता है इस कला में कि
निरादर जूठन को महाभोज समझकर खाने में नहीं, खिलाने में है
फिर भी तुम तृप्त होते हो
और हमारे गले में तुम्हारे नाम का पट्टा पड़ जाता है

मर जाने से भी नष्ट नहीं होते सम्बन्ध
गड्ढा खोदकर नमक डाल देते हैं तुम्हारी लाश पर
अँधेरे को चीरती दो आँखें पीछा करती हैं
हमें डराती नहीं हैं
रखवाली करती हैं पूर्वजों की तरह, जब हम डरे होते हैं।