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इन अँखियन आगैं तैं मोहन, एकौ पल जनि होहु नियारे / सूरदास

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राग कान्हरौ

इन अँखियन आगैं तैं मोहन, एकौ पल जनि होहु नियारे ।
हौं बलि गई, दरस देखैं बिनु, तलफत हैं नैननि के तारे ॥
औरौ सखा बुलाइ आपने, इहिं आगन खेलौ मेरे बारे ।
निरखति रहौं फनिग की मनि ज्यौं, सुंदर बाल-बिनोद तिहारे ॥
मधु, मेवा, पकवान, मिठाई, व्यंजन खाटे, मीठे, खारे ।
सूर स्याम जोइ-जोइ तुम चाहौ, सोइ-सोइ माँगि लेहु मेरे बारे ॥

भावार्थ :-- सूरदास जी कहते हैं- (माता कह रही हैं ) `मोहन! मेरी इन आँखों के सामने से एक क्षण के लिये भी अलग (ओझल) मत हुआ करो । मैं तुम पर बलिहारी जाती हूँ, तुम्हारा दर्शन किये बिना मेरे नेत्रों की पुतलियाँ तड़पती ही रहती हैं मेरे लाल ! दूसरे सखाओं को भी बुलाकर अपने इसी आँगन में खेलो । सर्प जैसे (अपनी) मणि को देखता रहता है, उसी प्रकार मैं तुम्हारी सुन्दर बाल क्रीड़ा को देखती रहूँ । मधु, मेवा, पकवान, मिठाई तथा खट्टे, मीठे, चरपरे -जो-जो भी व्यञ्जन श्यामसुन्दर ! तुम्हें चाहिये, मेरे लाल ! वही वही तुम माँग लिया करो ।'