इन कविताओं से पहले दो शब्द / कन्हैयालाल मत्त
आस्था के स्वर
एक लम्बी परम्परा रही है हमारी संस्कृति की ! इतनी ही पुरानी जितनी कि गंगा ! — निरन्तर प्रवहमान, अजस्र और अविराम ! हमारा इतिहास, हमारी मान्यताएँ, हमारी जीवन-शैली, हमारे पर्व, हमारी सामूहिक अभिव्यक्ति — यह सब संस्कृति ही तो है । संगीत हो या नृत्य, कविता हो या कला — सब में समाई है संस्कृति !
भारतीय संस्कृति की गंगा में अनेक संस्कृतियों की छोटी-मोटी जलधाराएँ समाहित हो गई हैं, किन्तु स्वर की उदात्तता लगभग अक्षुण्ण रही । हमारी संस्कृति किसी अकेले मनुष्य का आत्ममुग्ध चिन्तन नहीं है। यह सामूहिक उल्लास और करुणा की एक उदात्त अभिव्यक्ति है ।
अपनी संस्कृति में हमारी आस्था ही हमारे समाज की जीवन्तता की परिचायक है । यह आस्था ही हमारी जातीयता है, हमारी परिभाषा है, और हमारी आस्तिकता की पहचान है । जिस तरह अपने इतिहास से कटकर हमारा अस्तित्व शून्य हो जाता है, उसी तरह अपनी संस्कृति से कटकर हम कहीं के भी नहीं रह जाते। इसीलिए अपनी संस्कृति में आस्था रखना हमारा धर्म बन जाता है ।
आस्था का सम्बन्ध श्रद्धा और विश्वास से होता है । श्रद्धा और विश्वास के पुष्ट होने पर ही हमारे भीतर आस्था जागती है । इसके लिए हमारे मन का आस्तिक होना आवश्यक है । अपने इतिहास, अपनी परम्पराओं के प्रति आस्था, अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और अपनी माटी के प्रति विश्वास ही हमारी धरोहर है। यह धरोहर ही हमारी प्राण-शक्ति है, जिसके रहते हमारा समाज एक जीवन्त राष्ट्र बनता है और हम भविष्य के प्रति आस्थावान बनते हैं ।
हम अपनी संस्कृति के प्रति जितने ही सम्वेदनशील होंगे, हमारी आस्था उतनी ही बलवती होगी । इसके लिए आवश्यकता होती है समर्पण की । यह समर्पण भाव जब डगमगाने लगता है, तो समाज की आस्था भी विचलित होने लगती है और संस्कृति पर संकट मण्डराने लगता है। ऐसी स्थिति में एक सम्वेदनशील व्यक्ति आख़िर क्या करे ? और वह सम्वेदनशील व्यक्ति संयोग से कवि भी हो, तो ! निश्चित रूप से वह उस सबका मूक द्रष्टा नहीं रह सकता। संस्कृति के प्रति उसकी आस्था और आस्तिकता उसे चुप रहने ही नहीं देगी ।
निश्चय ही उसकी आस्था के स्वर उठेंगे — धीरे-धीरे बाँसुरी की तरह । और फिर गूँजेंगे पूरे वातास में और बदलते जाएँगे शंखध्वनि में ।
आस्था के यही स्वर मुखरित हैं इन कविताओं में ।
इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत संकलन को तैयार करते समय तीन कविताएँ ऐसी भी शामिल करना मुझे आवश्यक लगा, जो मेरे अन्य काव्य-संग्रहों में प्रकाशित हो चुकी हैं ।
— कन्हैया लाल ’मत्त’