भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इन दबी यादगारों से / विजयदेव नारायण साही
Kavita Kosh से
इन दबी हुई यादगारों से ख़ुशबू आती है
और मैं पागल हो जाता हूँ
जैसे महामारी डसा चूहा
बिल से निकल कर खुले में नाचता है
फिर दम तोड़ देता है।
न जाने कितनी बार
मैं नाच-नाच कर
दम तोड़ चुका हूँ
और लोग सड़क पर पड़ी मेरी लाश से
कतरा कर चले गए हैं।