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इन दरवाजों पर खुशहाली ज़रा दस्तक दे तो देखूं / सांवर दइया
Kavita Kosh से
इन दरवाजों पर खुशहाली ज़रा दस्तक दे तो देखूं।
काली कोठरियों तक सूरज ज़रा किरण दे तो देखूं।
ज़हन में अब भी उभरती है तेरे हुस्न की तस्वीर,
रंजोग़म की मारी दुनिया ज़रा फुरसत दे तो देखूं।
गुल भी खिलते हैं बाग़ों में, पुरवैया भी चलती है,
तपती जमीं, गर्म हवाएं, जरा राहत दे तो देखूं।
पके धान की सुगंध कहीं जरूर है इस हवा में,
तलाशे-रोटी गये क़दम जरा आहट दे तो देखूं।
आकाश के साथ-साथ मन में भी बनते हैं इंद्रधनुष,
इन बदरंग क्षणों से वक्त ज़रा फुरसत दे तो देखूं।