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इन दिनों / परमानंद श्रीवास्तव

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इन दिनों हत्‍यारे
सबसे पहले
अपने शिकार को
सुरक्षा की पक्‍की गाण्टी देना चाहते हैं

हमारे समय के
बर्बर विजेता भी

अकेले वे नहीं आते
झुण्ड में आते हैं
अपने पक्ष के सारे प्रमाण
और दस्‍तावेज़ लिए
आते हैं

अपना इतिहास और अपना भूगोल
अपने पहाड़ और अपनी नदियाँ
अपनी पद्मिनियाँ और अपने मानसरोवर
लिए आते हैं

मन-ही-मन धिक्‍कारते आते हैं
उस पीढ़ी को

जिसके पास
न अपने कपड़े
न अपने विचार

आते ही वे सूँघते हैं
पाठशालाओं के दीक्षा-कक्ष
पाठ्य-पुस्‍तकें
समय-सारणियाँ

इनमें छिपे
हर सम्भव षड्यन्त्र को
जाँचते हैं
सावधानी से

इन दिनों वे सिर्फ़
करुणा से डरते हैं
वे करुणा के
विचार होने से डरते हैं

वे आते ही
खोदने लगते हैं
हमारे घर-आँगन
हमारी टाट-पटिटयाँ
हमारे लोहा-लक्‍कड़

वे खूँदने लगते हैं
वे चीख़ने लगते हैं

सदियों बाद भी
अशुद्ध गुड्ड-मडु विकलांग
अनार्य संस्‍कृति या विचार के
अवशेष देखकर वे काँपने लगते हैं

इससे पहले कि वे लौट जाएँ
अपने शिविर में
वे पहाड़ों को याद दिला चुके होते हैं
वे नदियों को याद दिला चुके होते हैं
वे कुओं और पगडण्डियों को
याद दिला चुके होते हैं

कि कहो
कहो
और गर्व से कहो
कि हम कौन हैं !