इन दिनों / प्रतिभा कटियार
इन दिनों
अच्छी नहीं लगतीं मुझे
अच्छी लगने वाली चीज़ें
बिलकुल नहीं भातीं मीठी बातें
दोस्तियों में नहीं आती है
अपनेपन की ख़ुशबू
सुंदर चेहरों पर सजी मुस्कुराहटों से
झाँकती है ऊब
नज़र आ जाता है
कहकहों के भीतर का खोखलापन,
सहमतियों से हो चली है विरक्ति
इन दिनों ।
दाल पनीली लगती है बहुत
और सब्ज़ियाँ बेस्वाद
मुलाक़ातें बहाना भर लगती हैं
सिर टकराने का,
महीने के अंत में आने वाली तनख़्वाह भी
अच्छी नहीं लगती
वो हमेशा लगती है बहुत कम
अख़बारों में छपी हीरोइनों की फोटुएँ
अच्छी नहीं लगतीं,
न ख़बरें कि बढऩे वाले हैं
रोज़गार के अवसर
सुबह अब अच्छी नहीं लगती
कि धूप के पंखों पर सवार होकर
आती हैं ओस की बूँदें
और रातें दिक करती हैं
कि उनके आँचल में
सिवाए बीते दिनों के ज़ख़्मों की स्मृतियों के
कुछ भी नहीं
चाँद बेमकसद-सा
घूमता रहता है रात-भर
नहीं भाती है उसकी आवारगी
अमलतास अच्छे नहीं लगते
जाने किसके लिए
बेसबब खिलखिलाते हैं हर बरस
और गुलमोहर अच्छे नहीं लगते
दहकते रहते हैं बस यूँ ही
जाने किसकी याद में
तुम्हारा आना अच्छा नहीं लगता
कि आने में हमेशा होती है
जाने की आहट
और जाना तो बिलकुल नहीं रुचता
कि जाकर और क़रीब जो आ जाते हो तुम
अजब सा मौसम है
अच्छी लगने वाली चीज़ें
मुझे अच्छी नहीं लगतीं इन दिनों...