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इन दिनों / मोहिनी सिंह
Kavita Kosh से
इन दिनों
मै धरती हूँऔर तुम किसान
जोत रहे हो मुझे
उलट पलट दी हैं तुमने
सारी कठोर परतें
मिट्टी का हर दाना
अलग-अलग, खिला खिला
जैसे मेरी भींगी, चिपकी पलकें
हो गईं हैं अब अलग अलग, खिली खिली
तुम खुद हवा बन बहते हो मेरे ऊपर।
हर ओट उघड़ रही है।
ये जो क्यारियाँ बनाई हैं मुझपे
क्या बोना है इनमें?
बीज उम्मीद, भ्रम या प्रेम के?
जो भी बोओगे
सिंचेंगे उसे
मेरी आंखो में बसे सपनों के बादल
क्योंकी मुझे पता है
तुम लौटोगे
कटाई के समय।