भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इन दिनो / राहुल राजेश
Kavita Kosh से
इत्मिनान और सुख की
एक झीनी चादर है बदन पर
चेहरे पर उल्लास नहीं है
जीवन में एक नया संसार है
पर नया कुछ खास नहीं है
शहर-दर-शहर बदला
पर घर का अहसास नहीं है
अंदर जो एक चिनगारी हुआ करती थी
वो बुझ-सी गई है इन दिनों
खुद से बगावत पर आमदा हूँ
पर अंदर वो आग नहीं है
घर-दफ्तर के इस दूधिया आडंबर में
सबकुछ है, पर आँगन की
चौपालों की बात नहीं है
बेसाख्ता याद आ रहे हैं
फाकामस्ती के दिन इन दिनों
बाहर बसंत तारी है
भीतर पतझड़ से गुजर रहा हूँ इन दिनों
गाँव के कुँए का मीठा जल
प्यास बन अटका पड़ा है कंठ में
पर फिल्टर का पानी गटक रहा हूँ इन दिनों।