भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इन नयनों के नीर, सँभालो / श्यामनन्दन किशोर
Kavita Kosh से
इन नयनों के नीर, सँभालो!
क्या है लाभ व्यथा कहने से?
भावुकता-सरि में बहने से?
छलक न जाये आँसू बनकर
द्रवित हृदय की पीर, सँभालो!
इन नयनों के नीर, सँभालो!
सुख के बजते तार न पूरे।
सभी मिलन-संगीत अधूरे।
दुर्दिन के ही आघातों से
जीवन का मंजीर, बजा लो!
इन नयनों को नीर, सँभालो!
रहती घन में विद्युत-रेखा।
बिना ज्योति के तिमिर न देखा!
क्षीण डोर से आशा की तुम
अपने मन की धीर, बँधा लो।
इन नयनों के नीर, सँभालो!
(1.1.55)