इन बस्तियों में धूल—धुआँ फाँकते हुए
बीती तमाम उम्र यूँ ही खाँसते हुए
कुछ पत्थरों के बोझ को ढोना है लाज़िमी
जी तो रहे हैं लोग मगर हाँफते हुए
ढाँपे हैं हमने पैर तो नंगे हुए हैं सर
या पैर नंगे हो गए सर ढाँपते हुए
है ज़िन्दगी कमीज़ का टूटा हुआ बटन
बिँधती हैं उँगलियाँ भी जिसे टाँकते हुए
हमको क़दम—कदम पे वो गहराइयाँ मिलीं
चकरा रही है अक़्ल जिन्हें मापते हुए
देता नहीं ज़मीर भी कुछ ख़ौफ़ के सिवा
डर—सा लगे है इस कुएँ में झाँकते हुए
इंसान बेज़बान-सी भेड़ें नहीं जिन्हें
ले जा सके कहीं भी कोई हाँकते हुए
कहने को कह रहा था बचाएगा वो हमें
अक्सर दिखा है वो भी यहाँ काँपते हुए