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इन सहमे हुए शहरों की फ़ज़ा कुछ कहती है / नासिर काज़मी
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इन सहमे हुए शहरों की फ़ज़ा कुछ कहती है
कभी तुम भी सुनो ये धरती क्या कुछ कहती है
ये ठिठुरी हुई लम्बी रातें कुछ पूछती हैं
ये ख़ामुशी आवाज़-नुमा कुछ कहती है
सब अपने घरों में लम्बी तान के सोते हैं
और दूर कहीं कोयल की सदा कुछ कहती है
जब रात को तारे बारी बारी जागते हैं
कई डूबे हुए तारों की निदा कुछ कहती है
कभी भोर भए कभी शाम पड़े कभी रात गए
हर आन बदलती रुत की हवा कुछ कहती है
मेहमान हैं हम मेहमान-सरा है ये नगरी
मेहमानों को मेहमान-सरा कुछ कहती है
बेदार रहो बेदार रहो बेदार रहो
ऐ हम-सफ़रो आवाज़-ए-दरा कुछ कहती है
'नासिर' आशोब-ए-ज़माना से ग़ाफ़िल न रहो
कुछ होता है जब ख़ल्क़-ए-ख़ुदा कुछ कहती है