इबरत / सीमा आभास / सुमन पोखरेल
ए जिन्दगी !
आयत-ए-आनत के तरह भूल गया हूँ मै खुद का नाम
और भूल गया हूँ अपना का लहू का रंग भी ।
कबुतरों की तरह पथ्थरों को निगल कर आ पहुँचा हूँ यहाँ तक
नहीं है अब मेरे पास दुनियाँ की आखरी फज भी
न छुओ, मेरे नाखुनौं पे बर्क जडे हुए हैँ
बाहर मत निकलो, आँधी चल रही है मेरे जिन्दा होने की सबुत देने ।
हिम्मत हो तो मार लो जैसे मारते हैँ साँप को
गन्ने की तरह काट काट कर बाँट दो मेरे हड्डियों को
लखेटो, अफताब गुम हो जानेवाले आखिरी कोने तक
मै खडा ही रहूँगा, कहीं पैर रखे बगैरह ।
अब भी याद है मुझे
मेरे वजुद के उपर तुम्हारा किया हुवा रक्श-ए-जुनून को
तुम्हारा सुलगाया हुवा वक्त पे भी
मेरा मुस्कुराने का कोहराम को ।
मुझे नजर नहीं आते मुझ से बातेँ करनेवाले अल्फाज
छुना छोड दिया है मैने मुझे जिंदा रखनेवाले हवा के एहसास को ।
बेजान आहन को जैसे मार मार कर हठी बना लो मुझे, मै जी के रहूँगा
अजगर को जैसे बेदस्त-ओ-पा बना लो मुझे, मै चल के रहूँगा
चोर को जैसे गाली दो मुझे, नजरअन्दाज कर लूँगा मै ।
तुम्हारे सामने इख्लास के साथ मौजुद होने पे भी मुझे
मुजरिम साबित करने की कोशिस की तो
ए जिन्दगी !
मुआफी नही देगा तुम्हारे सर को
मेरा यह शमशीर !