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इबादतों की रात जैसी रात बन के आ गयी / कुमार नयन
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इबादतों की रात जैसी रात बन के आ गयी
मिरे लिए तू फिर शब-ए-बरात बन के आ गयी।
थीं ज़िन्दगी में सिर्फ मेरी लानतें-मलामतें
तू मौत ही थी फिर भी इक निजात बन के आ गयी।
ज़मीं-फ़लक सितारे-चांद जब मिरे खिलाफ थे
तो तू नयी-नयी सी कायनात बन के आ गयी।
जले-जले से ख़्वाब थे लुटी-लुटी सी हसरतें
घुटी-घुटी सी सांस में हयात बन के रह गयी।
मैं क्यों न बेख़बर रहूँ हरेक ख़तरो-ख़ौफ़ से
तू जब मिरी वफ़ात की वफ़ात बन के आ गयी।
मुझे तो फिर से आस हो गयी है लुतफ़े-दर्द की
जो बात खत्म थी कभी वो बात बन के आ गयी।
हक़ीक़तों की तल्ख़ियों से ज़िन्दगी तबाह थी
मिरी हसीं ग़ज़ल तू उनकी मात बन के आ गयी।