भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इबादत / सूर्यदेव सिबोरत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारा चेहरा
उस खुदा का चेहरा है
जिसे
देखा न था कभी
देख रहा हूँ जिसे
तुम्हें देखकर-
वह मुझे नहीं चाहिए ।
गुलाब की पंखुड़ियाँ
तुम्हारे ओठों की
नकल है हू-ब-हू ।
वह मुझे नहीं चाहिए ।

तुम्हारी पलकों के
धीरे धीरे खुलने से
सुबह होती है
धीरे धीरे ।
और

धीरे धीरे
तुम्हारी पलकें बन्द होती हैं
तो शाम होती है धीरे धीरे ।
अमावस्या का असीम विस्तार
काली पुतलियाँ हैं
तुम्हारी आंखों की ।
वह मुझे नहीं चाहिए ।

चुन चुन कर
परियों की
सुन्दरता की विशेषताएँ
बनाया गया है
तुम्हारा रूप ।

पूरी कायनात है
तुम्हारा बदन
जिसे
नज़रों से छूना भी
तौहीन है तुम्हारी
वह मुझे नहीं चाहिए ।

बदले में
दे दो मुझे
एक निशान
एक ही
अपने कदमों का ।
उस पर
रोज़ सुबह
चढ़ाऊँगा
एक फूल ताज़ा सा
जन्म जन्मान्तर तक ।