इमारतों के बीच में भावो का खण्डर / साधना जोशी
इमारतों के बीच सीढियों के अन्तिम कतार में
बन्द कमरे में एक बूढी मां हर पल कोषिष करती
हवा में सांस लेने की कभी खिड़कियां खोलती है
नीचे जमीन में गाड़ियों की कतार देख कर मायूस हो जाती है
रिमोे उठाकर टीवि चैनल बदलती है प्यास बुझती नहीं है ।
दो बोल बोलने की, सुनने की मुख मिटती नहीं है हृदय के भावों की
लम्बे दिनरात के क्रम में घंटी बजती है । भावों के ज्वार के साथ
द्वार खुलता है ।
घर लौटता है कन्धों पर भारी बोझ लिए नन्हां बचपन नये जोष की
एक किरण घर में आती है स्थिर हो जाती है फिर विडियों गेम में चारों
ओर चक्कर काटती दादी दो बोल बोलने की चाह रखती है किन्तु
हुं हां की ध्वनि वापस कानों में आ जाती है ।
समय का पल बढता है द्वार खुलते है फिर से
घर की दुनियां से बेखबर सूने हृदय की आह की गूंज से अनविज्ञ
सूनापन मुस्कान रहित निराष भरे चेहरे
चाय के कप के साथ टी0वी0 को अपना बनाते हैं
प्यास दबा दी जाती है आंचल में षाम का षाया सुबह की धूप आती है
किन्तु बन्द कमरे में रहती है पुरानी यादे भविश्य की चिन्ताएं
निराषा हताषा सपने आते हैं आंगने में खेलते बचपन के
चाची बडी की गूंज की खुले आसमा में टिमटिमाते तारों की
हंसते हुये युवा त्योहारों की बहते हुये भावों के उस अपनत्व की ।
जो मिल सकता है अपनों से यन्त्रो को अपने बनाये बिना ही
कहीं भी कभी भी अपनों के द्वारा ही एक छोटे एहसास के साथ ।