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इरादे थे क्या और क्या कर चले / साग़र पालमपुरी

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इरादे थे क्या और क्या कर चले

कि खुद को ही खुद से जुदा कर चले


अदा यूँ वो रस्म—ए—वफ़ा कर चले

क़दम सूए—मक़्तल उठा कर चले


ये अहल—ए—सियासत का फ़र्मान है

न कोई यहाँ सर उठा कर चले


उजाले से मानूस थे इस क़दर

दीए आँधियों में जला कर चले


करीब उन के ख़ुद मंज़िलें आ गईं

क़दम से क़दम जो मिला कर चले


जिन्हें रहबरी का सलीक़ा न था

सुपुर्द उनके ही क़ाफ़िला कर चले


किसी की निगाहों के इक जाम से

इलाज—ए—ग़म—ए—नातवाँ कर चले


ग़ज़ल कह के हम हजरते मीर को

ख़िराज़—ए—अक़ीदत अदा कर चले