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इल्तिजा / अमृता सिन्हा
Kavita Kosh से
मन पर पड़ी
किरचें
जब मुखर होने
लगती हैं,
पंक्तिबद्ध
होने लगती हैं, तब
दर्द में पिरोयी टीसती चुप्पियाँ
एकांत की महीन बुनावट
कहती हैं बहुत कुछ
धरो कान, सुन सको तो सुनो
कभी मन के खोह में
कभी देह के इर्द-गिर्द
स्मृतियों के
मज़बूत धागों
से बुना, तुम्हारा अहसास
कभी, मेरी मूँदी पलकों पर नर्म तितलियों सा
कभी गर्म धूप-सा मुट्ठियों में
कभी सुराही में रखे शीतल जल सा
और
कभी सिरहाने रखे सुनहरे ख्वाब सा
मिट्टी का एक
घर
जो बनाया है, मैंने
अपने भीतर
कभी आओ, तो आना
अपने उन्हीं पुख़्ता एहसासों के साथ
टोहते हुए
मन की इन्हीं कच्ची दीवारों को,
हो सके तो लाना
हमारे घर की
गुमशुदा
छत, अपने साथ।