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इल्म ओ फ़न के राज़-ए-सर-बस्ता को वा करता हुआ / उमैर मंज़र

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इल्म ओ फ़न के राज़-ए-सर-बस्ता को वा करता हुआ
वो मुझे जब भी मिला है तर्जुमा करता हुआ

सिर्फ़ एहसास-ए-नदामत के सिवा कुछ भी नहीं
और ऐसा भी मगर वो बार-हा करता हुआ

जाने किन हैरानियों में है कि इक मुद्दत से वो
आईना-दर-आईना-दर-आईना करता हुआ

क्या क़यामत-ख़ेज़ है उस का सुकूत-ए-नाज़ भी
एक आलम को मगर वो लब-कुशा करता हुआ

आगही आसेब की मानिंद रक़्साँ हर तरफ़
मैं कि हर दाम शुनीदन को सदा करता हुआ

एक मेरी जान को अंदेशे सौ सौ तरह के
एक वो अपने लिए सब कुछ रवा करता हुआ

हाल क्या पूछो हो ‘मंज़र’ का वो देखो उस तरफ़
सारी दुनिया से अलग अपनी सना करता हुआ