भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इशारे जिंदगी के / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

     ज़िन्दगी हर मोड़ पर करती रही हम को इशारे
     जिन्हें हम ने नहीं देखा।
     क्यों कि हम बाँधे हुए थे पट्टियाँ संस्कार की
     और, हम ने बाँधने से पूर्व देखा था-

     हमारी पट्टियाँ रंगीन थीं।
     ज़िन्दगी करती रही नीरव इशारे :
     हम धनी थे शब्द के।
     ‘शब्द ईश्वर है, इसी से वह रहस् है’,

     ‘शब्द अपने आप में इति है’,-
     हमें यह मोह अब छलता नहीं था।
     शब्द-रत्नों की लड़ी हम गूँथ कर माला पिन्हाना चाहते थे
     नये रूपाकार को, और हम ने यही जाना था

     कि रूपाकार ही तो सार है।
     एक नीरव नदी बहती जा रही थी,
     बुलबुले उस में उमड़ते थे
     रहःसंकेत के : हर उमड़ने पर हमें रोमांच होता था,

     फूटना हर बुलबुले का, हमें तीखा दर्द होता था।
     रोमांच! तीखा दर्द!
     नीरव रहःसंकेत-हाय!
     ज़िन्दगी करती रही नीरव इशारे,

     हम पकड़ते रहे रूपाकार को।
     किन्तु रूपाकार चोला है
     किसी संकेत शब्दातीत का,
     ज़िन्दगी के किसी गहरे इशारे का।

     शब्द :
     रूपाकार :
     फिर संकेत-ये हर मोड़ पर बिखरे हुए संकेत-
     अनगिनती इशारे ज़िन्दगी के
     ओट में जिन की छिपा है

     अर्थ!
     हाय, कितने मोह की कितनी दिवारें भेदने को-
     पूर्व इस के, शब्द ललके, अंक भेंटे अर्थ को,
     क्या हमारे हाथ में वह मन्त्र होगा, हम इन्हें सम्पृक्त कर दें?
     अर्थ दो, अर्थ दो।

     मत हमें रूपाकार इतने व्यर्थ दो!
     हम समझते हैं इशारा ज़िन्दगी का-
     हमें पार उतार दो-रूप मत, बस सार दो।
     मुखर वाणी हुई, बोलने हम लगे :

     हम को बोध था वे शब्द सुन्दर हैं-
     सत्य भी हैं, सारमय हैं।
     पर हमारे शब्द जनता के नहीं थे,
     क्यों कि जो उन्मेष हम में हुआ

     जनता का नहीं था, हमारा दर्द
     जनता का नहीं था,
     संवेदना ने ही विलग कर दी
     हमारी अनुभूति हम से।

     यह जो लीक हम को मिली थी-
     अन्धी गली थी।
     चुक गयी क्या राह! लिख दें हम
     चरम लिखतम् पराजय की?
     इशारे क्या चुक गये हैं

     ज़िन्दगी के अभिनयांकुर में?
     बढ़े चाहे बोझ जितना
     शास्त्र का, इतिहास का
     रूढ़ि के विन्यास का या सूक्त का-
     कम नहीं ललकार होती ज़िन्दगी की।
     मोड़ आगे और हैं-
     कौन उस की ओट, देखो, झाँकता है?

दिल्ली-सागर (रेल में), 23 नवम्बर, 1958