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इश्क़ इबादत - 1 / भवेश दिलशाद

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मुझसे मेरी तनहाई ने अक्सर तेरी बातें की हैं
तेरे पहलू में ही मैंने शाम बसर की रातें की हैं

मुझको मेरी गहराई ने हरदम तुझ तक ही पहुँचाया
जितना उतरा जितना डूबा उतना ज़्यादा तुझको पाया

मुझ पर मेरी बीनाई ने दो रंगों के मंज़र डाले
असमानी से ख़्वाब दिये और मटमैले से बंजर डाले

मैंने मेरी ऊंचाई ने तय कितने नीले मील किये
परतें छानीं गिरहें खोलीं सुर्ख़ आँखों के सब नील किये

मुझसे मेरे सौदाई ने अक्सर तेरा नाम खरीदा
ऊंचे दामों पर बेचा जो औने-पौने दाम खरीदा

मुझ तक मेरे शैदाई ने भेजे कितने क़िस्से मेरे
तू ही तू है सबमें शामिल कहने को हैं हिस्से मेरे

मेरे लिए ही हरजाई ने राख में रख दी है चिंगारी
कहता है मैं सुलगूँगा तो ज़िंदा रहेगी प्रीत हमारी

मैंने मेरी सच्चाई ने इश्क़ के सच के ढाले सांचे
चंद सुनहरे सच्चे अक्षर तेरे नाम के साथ में बांचे

तनहाई ने गहराई ने बीनाई ने ऊंचाई ने
सौदाई ने शैदाई ने हरजाई ने सच्चाई ने
कोरे कागज़ रंग डाले हैं

काले अक्षर नीले अक्षर असमानी से मटमैले से
चंद गुलाबी चंद सुनहरे सच्चे अक्षर हैं फैले से
ये अक्षर सबसे पहले से मेरी आँखों ने पाले हैं

अक्षर होंगे बेनूर नहीं रंगत होगी काफ़ूर नहीं
तू मुझमें ऐसे रचा-बसा चाहू तो होगा दूर नहीं
तू है मैं हूँ कुछ और नहीं ये रिश्ते जनमों वाले हैं

तू मुझमें ऐसे रचा-बसा तू मुझमें ऐसे घुला-मिला
तू मुझमें ऐसे हरा-भरा तू मुझमें ऐसे छुपा हुआ
तू मुझमें ऐसे जैसे ख़ुदा फेरे तेरे संग डाले हैं
कोरे कागज़ रंग डाले हैं