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इश्क़ की सई-ए-बद-अंजाम से डर भी न सके / अबू मोहम्मद सहर
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इश्क़ की सई-ए-बद-अंजाम से डर भी न सके
हम तिरी चश्म-ए-इनायत से उतर भी न सके
तू न मिलता मगर अल्लाह रे महरूमी-ए-शौक़
जीने वाले तिरी उम्मीद में मर भी न सके
बर्क़ से खेलने तूफ़ान पे हँसने वाले
ऐसे डूबे तिरे ग़म में कि उभर भी न सके
हुस्न ख़ुद हुस्न-ए-मुजस्सम से पशीमाँ उट्ठा
आईना ले के वो बैठे तो सँवर भी न सके
तिश्ना-लब बैठे हैं मय ख़ाना-ए-हस्ती में ‘सहर’
दिल वो टूटा हुआ पैमाना कि भर भी न सके