इश्क़ में पास-ए-जाँ नहीं है दुरूस्त
इस सुख़न में गुमाँ नहीं है दुरूस्त
किसू मशरब में और मज़हब में
ज़ुल्म ऐ मेहरबाँ नहीं है दुरूस्त
डर न दुश्मन कूँ कड़कड़काने में
बाँग मुर्ग़ी के याँ नहीं है दुरूस्त
कई दीवान कह चुका ‘हातिम’
अब तलक पर ज़बाँ नहीं है दुरूस्त