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इश्क़ में सरहदें नहीं हुआ करती / मुन्नी गुप्ता

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चिड़िया ख़ामोश है
एक गहरी ख़ामोशी
       उसकी आँखों में है ।
 
तट पर समन्दर का
लगातार टूटना जारी है,
 
चिड़िया,
एक किनारे पर
                 चुपचाप,
                            सर्द आँखों से
समन्दर के हाहाकार को महसूसती है

मोती-सी पुतलियों से
        समन्दर का टूटना
                         देख रही है ।
         बरबस उठ रहे तूफ़ान को देख
      बेचारगी से वह कराह उठती है ।
 
समन्दर का दर्द लावा बन पिघल रहा है ।
 
वह तट पर रहने को
          अभिशप्त है
जानती है
समन्दर उसे लाँघकर ख़ुद को
       बाँध नहीं सकता ।
 
समन्दर के बवण्डर को तो वह पी नहीं सकती ।
वह दर्द उसके अन्तिम छोर से टीस-टीस
                           उठ रहा ।
और, बवण्डर तो उठना ही था ।
                           तुमने अपराध जो किया,
कि चिड़िया से प्रेम किया ।
 
इतिहास साक्षी है
जब-जब प्रेम के ख़ूबसूरत आगाज़ हुए
उसका अनजाम दुखद हुआ ।
 
जब-जब प्रेम ने परवाज़ भरी
आसमान दर्द से पिघल-पिघल उठा ।
जब-जब प्रेम ने आँखें खोलीं
धरती की रगों में
काँटें उग आए ।
और सारी धरती सुर्खरू हो उठी
 
समन्दर,
तुम सुन रहे हो न, मुझे !
 
शान्त हो जाओ,
तुम साक्षी हो
अनन्त, अमर प्रेम के
 इतिहास के ।
 
क्या तुमने नहीं सुनी
             शीरीं की प्रेम कहानी
क्या तुम्हें नहीं पता —
शीरीं के इश्क में
       दीवाने फ़रहाद का हश्र

पहाड़ का जिस्म काटकर
धरती की छाती चीरकर
दूध की नदियाँ दर्रों से
               खींच लाने वाला
       ‘फ़रहाद का जिस्म’
लहू की नदी बनकर उमड़ा

औ’ आत्मघाती बन बैठा ।
 
पर इश्क़ में
अनजाम की
            कब, किसने सोची ?

इश्क़, ख़ुदा मान सजदे में झुके दोनों
बे-इन्तिहाँ मोहब्बत में फ़ना हो गए ।
 
ज़मीन की सतह पर
न रह सके — दोनों इक साथ
मगर,
       ज़मीन के भीतर
 इश्क़ ने संग-संग पनाह ली ।
 
समन्दर,
       शायद तुम्हें याद हो,
ऐसा ही इक अद्भुत इश्क़
था माँझी

जब हौसले प्रेम की परवाज़ भरते हैं तो
छेनी औ’ हथौड़ी से भी
          पाटी जा सकती है लम्बी खाई
 
इश्क़ की दरियादिली का
                             वह ‘माउण्टेनमैन’
फाल्गुनी के बिछोह में इश्क़ को बसन्त कर गया ।

प्रेम शहादत चाहता है
                 कोमलता गवाँकर ही
                कठोरता पाई जाती है ।
 
चित्रकार तुम भी
                      सुन रहे हो न !
       क्या तय कर सकते हो
           दशरथ के बाईस साल की चाहत क्या थी ?
                               गहलोर पर्वत या फाल्गुनी
फाल्गुनी या गहलोर पर्वत ।
 
आख़िर,
       वर्षों तक उसे ज़िन्द किसने रखा —
फाल्गुनी के दर्द
या गहलोर की ऊँचाई ने ?
 
समन्दर तुम्हें क्या याद है
       सस्सी पुन्नू की प्रेमकथा
चिड़िया जैसे समन्दर को ढूँढ़ने निकली है
वैसे ही सस्सी भी पुन्नू को ढूँढ़ती रही
मगर प्रकृति क्रूर हो बैठी ।
 
सन्नाटा पसरे रेगिस्तान में
       सस्सी नंगे पाँव चली
मगर, धधकती रेत का दरिया
                 उसे लील गया ।
त्यागे पुन्नू ने भी उसी ठौर प्राण ।
दहकती रेतीली रेगिस्तानी ज़मीं पे
दोनों की समाधि चमक उठी ।
 
 
चित्रकार !
       क्या तुम तय कर सकते हो
       दोनों की चाहत में
       प्रकृति कैसे कठोर हो गई ।
प्रेम में कठोरता का यह पाठ
                 क्यूँकर रचा गया ।
आख़िर,
दोनों की चाहत क्या थी
प्रकृति की ख़्वाहिश क्या थी ।
 
समन्दर,
       तुम शान्ति से सुनो ।
तुम क्या
उसी इतिहास को दोहराकर
कलँकित होना चाहते हो.
       तुम तो जीवन हो,
तुम्हें तो मैंने जीवन में देखा है
 
फिर क्यूँ
       अपने बवण्डर से
तूफ़ानी प्रेम का
काला इतिहास
       दोहराना चाहते हो ।
 
समन्दर तुम्हें तो लैला-मजनू औ’
हीर-राँझा याद है न !
उनकी दर्द भरी दास्ताँ
सदियों से
       जवाँ रगों में परवाज़ भरते हैं ।
इनकी मुस्कुराहटों को ज़हर देकर
हमेशा के लिए दफ़ना दिया ।
चित्रकार,
       तय करो तुम ही ।
ज़माना दोनों की ख़ुशियों का
       क्यूँकर क़ातिल बन बैठा ।
 
तुम ही तय करो ! चित्रकार,

हीर की चाहत क्या थी ?
लैला की चाहत क्या थी ?
राँझे की चाहत क्या थी ?
मजनू की चाहत क्या थी ?

और आख़िर,
       ज़माने की चाहत क्या थी ?

समन्दर तुम्हें तो याद ही होंगे
       सोहणी औ’ माहिवाल
       मिर्ज़ा औ’ साहिबा
उनके दर्द की दास्तानें
सदियाँ कहाँ भूलीं
इनका नाम आते ही
चनाब का पानी
       सुर्ख़ हो उठता है ।
 
चित्रकार,
       क्या तुम तय कर सकते हो ।
आख़िर दोनों की मौत
       किसकी चाहत को
       मुकम्मल जहाँ देती है ?
 
ज़माना इनके प्रेम को
       तोड़ नहीं पाया
पर मरकर इन्होंने
ज़माने के अहम को
                 दरका तो दिया ही
 
प्रेम ने कब विनाश की सत्ता
                 मानी है
उसकी अपनी लीला औ’ लय है
कहाँ धाराएँ अपने चाहने से मुड़ती हैं
 
समन्दर, तुम सुन रहे हो न !
सदियों से चली आ रही
       सभ्यता के इतिहास में
       मुट्ठी भर प्रेम की दास्तानें
                           दर्ज हैं ।
 
कितनी ही अनन्त गाथाएँ
तुहारे गर्भ में
       अपने इतिहास के साथ
                           दफ़न हैं ।
 
 कैसे भूल बैठे तुम
उन असंख्य स्नेहिल चेहरे को
जिसने तुम्हारी ही गोद में
       अन्तिम साँसें लीं ।

ख़ूबसूरत प्रेम का
       यह त्रासद अन्त
क्या तुम्हें,
बेचैन नहीं करता !
फिर क्यूँ
       तुमने वही राह पकड़ी ?
 
तुम्हारा उफ़ान तुम्हें नहीं
तुम्हारे भीतर और बाहर के जीवन को लील लेगा ।
समन्दर कब टूटता है अपनी उफ़ान में ?
दुनिया तो उसे हमेशा अपने विस्तार और पूरेपन में पाती है
कुछ बदलता है तो उसके भीतर और बाहर की दुनिया ।
 
समन्दर,
मेरी ख़्वाहिश है
रेत और दरिया में दफ़न हो चुकी
सभी स्नेहिल आत्माओं को
       पुनर्जीवित करूँ
सुनना चाहती हूँ उनसे
दास्तान-ए -इश्क़ का पवित्र सुन्दर पाठ
जो कायनात के ज़र्रे-ज़र्रे से बोलता है ।
जानना चाहती हूँ
वह इश्क़-ए -जुनूँ
कहाँ से पाया ।
 
न सीमाओं की सरहदें इन्हें रोक पाई
न प्रकृति की क्रूरता
न उफ़नते दरिया का उफ़ान
इन्हें बाँध पाया
न ज़माने की हदें इन्हें तोड़ पाई ।