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इसके सुलगाने में यारो इस क़दर हैं ख़ामियाँ / प्रफुल्ल कुमार परवेज़

 

इसके सुलगाने में यारो इस क़दर हैं ख़ामियाँ
इस अँगीठी का मुक़द्दर ही न बन जाए धुआँ

पेट से बाहर कभी ये आग आती ही नहीं
चंद टुकड़े आ ही जाते हैं हमेशा दरमियाँ

वो अँधेरों से हमेशा रिश्वतें लेते रहे
लोग जो कहते रहे कि रौशनी होगी यहाँ

फूल सारे हक़ जता कर ले गये हैं चंद लोग
आओ अब हम तुम समेटें बाग़ का पतझर मियाँ

क्या बनेगा इस जगह अब अशियाना दोस्तो
इस जगह तो गिर रही हैं बिजलियाँ ही बिजलियाँ