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इसलिए आशा / कुमार अंबुज
Kavita Kosh से
सख़्त सर्दियाँ धीरे-धीरे दाख़िल हो ही जाती हैं फाल्गुन में
शनिवार मुण्डेर पकड़कर कूद जाता है इतवार के मैदान में
एक दृश्य की धुन्ध में से प्रकट होता है एक कम धुन्धला दृश्य
कभी विस्मय की तरह, कभी महज विषयान्तर
अनुभव का आसरा यह है कि धूल और लू भी
आखिर बारिश में घुल जाती है
और बारिश शरद की तारों भरी रात में
नेत्रहीन कहता है मैं ध्वनि से
और स्मृति से देखने की कोशिश करता हूँ
और पत्तों में हवा गुज़रने की आवाज़ से
पुकार लेता हूँ वृक्षों के नाम ।