इसीलिए इतनी सूख गई हो / शंख घोष
बहुत दिनों से तुमने बादलों से बातचीत नहीं की
इसीलिए तुम इतनी सूख गई हो
आओ मैं तुम्हारा मुँह पोंछ दूँ
सब लोग कला ढूँढ़ते हैं, रूप ढूँढ़ते हैं
हमें कला और रूप से कोई लेना-देना नहीं
आओ हम यहाँ बैठकर पल-दो-पल
फ़सल उगाने की बातें करते हैं
अब कैसी हो
बहुत दिन हुए मैंने तुम्हें छुआ नहीं
फिर भी जान गया हूँ
दरारों में जमा हो गए हैं नील भग्नावशेष
देखो ये बीज भिखारियों से भी अधम भिखारी हैं
इन्हें पानी चाहिए बारिश चाहिए
ओतप्रोत अन्धेरा चाहिए
तुमने भी चाहा कि ट्राम से लौट जाने से पहले
इस बार देर तक हो हमारी अन्तिम बात
ज़रूर, लेकिन किसे कहते हैं अन्तिम बात !
सिर्फ़ दृष्टि के मिल जाने पर
समूची देह गल कर झर जाती है मिट्टी पर
और भिखारी की कातरता भी
अनाज के दानों से फट पड़ना चाहती है
आज बहुत दिनों के बाद
हल्दी में डूबी इस शाम
आओ हम बादलों को छूते हुए
बैठें थोड़ी देर ....
मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी