भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इसीलिए / रणजीत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सभ्यता के बंधनों में बँध रही है ज़िंदगी की धार
तड़पता मुक्त होने के लिए ये गँदलाया हुआ पानी
जो रिसता भर रहा है पर
अभी तक बह नहीं पाया
कि मेरी ज़िंदगी वह खंडहर है
जो कि क्षण-क्षण क्षीण चाहे हो
अभी पर ढह नहीं पाया
सुलगते काठ के टुकड़े-सा जीवन कसमसाता है
किसी की अंगुलियाँ छू आग दे जाएँ
इसी उम्मीद में जो दह नहीं पाया।

जलाकर: ढहाकर
रुके जीवन-पानी को बहाकर
खुले हाथों आज ही लुटाना मैं चाहता हूँ
समेटे किया हूँ जिसे
अहम् की बाँहों में अब तक
आज अपनी बाँह में समेट तुम्हें
उसी ज़िंदगी को मुक्त करना
उसकी धज्जियाँ उड़ाना मैं चाहता हूँ!

इसी से बुलाता हूँ तुम्हें
कि तुम्हारे स्वर-संघात से
यह खरखराता खंडहर
धड़धड़ा कर ढह सके
कि तुम्हारी साँस के सैलाब से
यह रिसता हुआ पानी
खलखला कर बह सके
कि तुम्हारी स्पर्श ज्वाला से
यह धुँधुआता काठ
भभक कर दह सके,
इसीलिए आज मैं बुलाता हूँ तुमको!