भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इसी उसूल पे उसका निज़ाम चलता है / अनुज ‘अब्र’
Kavita Kosh से
इसी उसूल पे उसका निज़ाम चलता है
कि कांटा पांव का कांटे से ही निकलता है
हम उस चराग को अपना लहू भी दे देंगे
वो जो ख़िलाफ़ अंधेरे के रोज जलता है
जमीं तवाफ़ किये जा रही है इसका और
समझते हम हैं कि ये आफ़ताब चलता है
मेरी ये बात हमेशा दिमाग में रखना
हज़ार वक्त बुरा हो मगर बदलता है
ये कौन बात अकेले में करता है मुझ से
ये कौन छत पे मेरे साथ साथ चलता है
गए हो आग लगा कर न जाने ये कैसी
कि दिल में आज तलक इक अलाव जलता है
अनुज यकीन कभी उस पे तुम नहीं करना
हर एक बार जो अपना कहा बदलता है