इसी क़वायद में / राम सेंगर
नींद यह विलास की
खुलेगी कब, क्या जाने,
हमें जागते रहना होगा ही भाई !
खोटे आदर्शो की
कण्ठी-माला डाले
नक़ली जीने के, यों तो न रहे आदी, गो,
अर्थाया फिर पूरा जीवनव्यवहार ।
पीड़ा के चरम से
निचोड़ें कैसे खुशियाँ
इसी क़वायद में, यह ज़िन्दगी बितादी,पर,
कहाँ उतर पाया इन पंखों का भार ।
आपस के सुख-दुख की
संगति जीवंत नहीं
हम ही अपनी गत के
ख़ुद उत्तरदायी ।
मानवीय धड़कन
हर बात की हुई ग़ायब
तंत्र औ' समाज बड़े भौण्डे-से लगते है
प्रकृति भले लगे मनोहारी या रम्य ।
धर्म को मिथक ढाँपे
सत्य को ढँके कविता
ऐसे ही बेतुके मुखौटों के बीच कहीं
छिपी हुई जीने की लालसा अदम्य ।
गुण-अवगुणयुक्त
हमीं तो हैं सम्पूर्ण पुरुष
कोशिश है, दें ख़ुद को
ठीक से दिखाई ।