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इसी के आलोक में / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
एक रिसता हुआ घाव है मेरी आत्मा
छिदने और जलने के विरूद्ध रचे गए वाक्यों
और उनके पवित्र वलय से भी बाहर की कोई चीज़
एक निष्ठुर ईश्वर से अलग
आँसुओं की है इसकी भाषा और
यही इसका हर्ष
कहाँ रख पाएगी कोई देह इसको मेरे बाद
यह मेरा ही स्वप्न है, मेरी ही कविता,
मेरा ही प्रेम है और इसीलिए
मेरा ही दुख.
इसी के आलोक में रचता हूँ मैं यह संसार
मेरे ही रक्त में गूँजती इसकी हर पुकार
मेरी ही कोशिका में खिल सकता
इसका स्पंदन ।