भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इसी जनम में / संजय कुंदन
Kavita Kosh से
वह जो मन की चहचहाहट पर गुनगुनाता था
मन की लहरों में डूबता-उतराता था
पकता रहता था मन की आँच में
वह जो चला गया एक दिन
मन के घोड़े की रास थामे
साँवले बादलों में न जाने कहाँ
वह मैं ही था
विश्वास नहीं होता
यह इसी जनम की बात है।