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इसी से नाराज़ हो जाता हूँ मैं / राजमणि मांझी 'मकरम'
Kavita Kosh से
ग़रीबी को पान की तरह
चबाकर खाने वाले / ओ सफ़ेदपोश
किस क़दर चबाकर थूक देते हो
ज़िन्दगी का रंग
इसी से नाराज़ हो जाता हूँ
मैं और मेरा सर्वहारा वर्ग
और टूट जाता है सभ्यता के आगे
सारा का सारा वहशीपन
इस तरह समाज को सिगरेट की तरह
न पिया करो कम-से कम / और धुआँ
देश के मुँह पर न उगला करो
क्या पुरुषार्थ इसी में है कि
औरत को चूना लगाकर
तम्बाकू की तरह मसल डालो?
और जीवन का नशा
उतरा भी न रहे
स्कॉच की तरह रस्मों की सील / तोड़ दो?
बोलो आदमियत के ठेकेदार
क्या तुम्हें एड्स नहीं लगेगा
जो हर वक़्त विदेशी वस्तु
करते हो इस्तेमाल?