इसे न मैं बेचती, न ही लगाती उधार / तारा सिंह
मेरी स्मृति के गृह मे रखकर,अपनी सुधि का सज्जित तार
खोलकर मेरे अन्तःपुर का दुख-द्वार,कहाँ गये मेरेसुकुमार
सुनकर घोर वज्र का हुंकार , मैं काँप उठती हूँ बार -बार
हँसता मुझ पर नयन नीर ,सर उठाकर चलता तिमिर
क्यों छोड़कर चले गए तुम , मेरे प्रेम सुरभि का कारागार
वेदना से भरा यह संसार , भैरव गर्जन करता बार -बार
शून्य से टकराकर , आती मेरी करुण पीड़ा की पुकार
जमाने की वाणी में होती वाण , जिह्वा में होती तेज धार
तटिनी करती तरणी संग छल , कैसे होगी मेरी नैया पार
तुम्हारी प्यास गाती तीव्र विराग ,करती मेरे संग प्रतिघात
सिंधु अनल की आँच पाकर ,पिघल-पिघलकर बाहर आती
मेरे पलकों पर झूलती , दिखलाती अपना अनंत प्यार
लगता मेरे हृदय - शोणित का निर्माण वेदना से हुआ है
तभी तो मेरी आँखें लगातीं , अश्रु का हाट
जीवन की प्याली में करुणा की लाली बेचती,प्रति रोम में
पालती जग का अभिशाप,ये थोड़े से निधियाँ हैं मेरे पास
श्वास - श्वास खोकर जिसका करती हूँ मैं व्यापार
मगर न नगद लगाती , न ही देती उधार
सिहरे स्पंदन में देकर भावों का आकार
पीत - पल्लवों में सुनती हूँ जब तुम्हारी पदध्वनि
दर्पमय हो जाता मेरा अणु - अणु , देखती
हूँ तब मैं उसमें तुम्हारा सुंदर मुखड़ा निहार
मेरे यौवन के वसंत थे तुम , मेरे प्राणों के थे तुम चिर संगी
भूमि से आकाश तक संग चलने का, की थी हमने संधि
झरनों के कल - कल संग मिलाते थे जब कलकंठ हम दोनों
तब आनंद की प्रतिध्वनियाँ,जीवन दिगंत के अम्बर पर जाकर थीं
गुंजती , भविष्य की स्मृति की रेखा को कराता था कुसुमों के
चितवन से परिचय , इच्छा को दर्पण में रखता था संचित
आज उर का बाँध तोड़कर , स्वर स्रोतों से होकर
कल - कल कर , छल -छलकर बहे जा रहे हैं
वह्निकुंड से दाह्यमान होकर मेरे विकल प्राण
नित ज्वाला से खेल खेलता,फिर भी होता नहीं श्रांत