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इसे हम ऊंट बना सकते हैं / शहंशाह आलम

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सायकिल
हमारी इच्छाओं रुचियों का
जैसे प्रथम ध्रुवतारा
जिसकी ख़ासी ज़रूरत है
हमें और तुम्हें
हमारे पिता और भाई को

मृत या थकी हुई
कभी नहीं लगती सायकिल
इसे हम ऊँट बना सकते हैं
अश्व बना सकते हैं
वायुयान बना सकते हैं
और न जाने क्या-क्या बना सकते हैं
अगर आप-हम ठान लें

जब पहाड़ पुकारता है
जब जंगल पुकारता है
जब नदी पुकारती है
जब घाटी पुकारती है
जब पुकारता है प्रकाश-स्वर
हम भागते हैं सायकिल पर सवार

जैसे घर में होती हैं
गेंदें
किताबें
खिड़कियां
पतंगे
थपके
तस्वीरें
दूसरी ज़रूरी वस्तुएं
उसी तरह से
घरों में होती हैं सायकिलें

इस क़स्बाई रात में
इस शहरी सुबह में
इस गोधूलि के समय में
गर सायकिल है हमारे साथ
तो फ़िक्र की नहीं कोई बात

सायकिल प्रसन्न होती है
जब गृहस्थ उस पर चढ़कर
जाते हैं खेत
अब्बा हुज़ूर जाते हैं काम पर
बतियाते हैं रास्ते में
अनाज उपजाने वाले भाई से छककर
लड़के जाते हैं स्कूल
लड़कियां जाती हैं कॉलेज
शायर और कवि जाते हैं
मुशायरों और गोष्ठियों में

अपने ऊपर
एक मुकम्मल यक़ीन भी
चाहती है सायकिल

दूर-दूर तक फैली चांदनी को
संभाले रखती है सायकिल
अपने आस पास
युवा लड़कियों और चिडि़यों के
संगीत को
और चरवाहे के गीत को
उगती सुबह
डूबती सांझ को
कपास के दिन
खनिज की रात को
दृश्य और शब्द को
सायकिल गाती है समवेत

बच्चे मुंह अंधेरे
सायकिल की समस्त रचनाशीलता के संग
घर से निकल जाना चाहते हैं
समय से पहले बड़े हो जाने के लिए
पूरी पृथ्वी घूम लेने के लिए।