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इस असंभव समय में / सुशीला पुरी
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					मेरी प्यास
गहरे समंदर में उतर जाती है
जब कहते हो तुम
आओ!
आ जाओ पास 
नभ का अनंत विस्तार लिए
मेरी निजता
दुबक जाती है
तुम्हारी गोद में
और कई-कई आँखों से
देखती हूँ तुम्हे
अनयन होकर 
तुम्हारी लय पर
थिरकती हूँ मै
देह में विदेह होकर
और पोर-पोर पर
मुस्कराते हो तुम
नियम से बेनियम होकर 
आदिम धुनों में
तुम्हारा अनहद नाद
बजता है मुझमे
और उठती है हिलोर
इस असंभव समय में ।
	
	