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इस कशाकश में यहाँ उम्र-ए-रवाँ गुज़रे है / शोरिश काश्मीरी
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इस कशाकश में यहाँ उम्र-ए-रवाँ गुज़रे है
जैसे सहरा से कोई तिष्ना-दहाँ गुज़रे है
इस तरह तल्ख़ी-ए-अय्याम से बढ़ती है ख़राष
जैसे दुश्नाम अज़ीज़ों पे गिराँ गुज़रे हैं
इस तरह दोस्त दग़ा दे के चले जाते हैं
जैसे हर नफ़अ के रस्ते से ज़ियाँ गुज़रे हैं
यूँ भी पहुँचे हैं कुछ अफ़्साने हक़ीक़त के क़रीब
जैसे काबे से कोई पीर-ए-मुगाँ से गुज़रे है
हम गुनहगार जो उस सम्त निकल जाते हैं
एक आवाज़ सी आती है फ़लाँ गुज़रे है