भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस क़लम को रोशनाई दे ख़ुदा / अजय अज्ञात

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस क़लम को रोशनाई दे ख़ुदा
और अपनी रहनुमाई दे ख़ुदा

ज़ख़्म गहरे जो ज़माने ने दिए
तू ही उनकी कुछ दवाई दे ख़ुदा

दूर कर दे ऐब जो सारे मेरे
मुझ को ऐसी पारसाई दे ख़ुदा

हद से बढ़ कर हम सयाने हो गए
जिंदगी फिर इब्तिदाई दे ख़ुदा

हो गया है अब शिकस्ता ये बदन
इस क़फ़स से तू रिहाई दे ख़ुदा

पाप की कौड़ी न मुझ को चाहिए
पुण्य की मुझ को कमाई दे ख़ुदा