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इस खिड़की से / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
इस खिड़की से
दिखता है आकाश ज़रा-सा
उसमें ही उड़ते दिखते हैं रोज़ कबूतर
वहीं दीखते दूर देश से आये बादल
चाँद झाँककर
हमको देता कभी दिलासा
गगन-कैनवस पर ऑंखें हैं चित्र बनातीं
देख धूप को साँसें सम्पाती हो जातीं
सर्दी में
उससे ही झरता घना कुहासा
खिड़की याचक - आसमान सपनों का दाता
पता नहीं कितने जन्मों का उनका नाता
नभ से
नेह बरसता - पीता हिरदय प्यासा